माफ़ीनामा (कविता-1)

प्रेम करु तुमसे अन्नत
हारा ह्रदय हारा हू मन

मेरे हिय में स्वयं की तस्वीर सोचा है
मेरे मन मंदिर में तू ही शक्तिस्वरूपा है
मेरे विचारों में तू घुलती है
मेरे कर्मो में तू झलकती है
मैं धरती तू है अनन्त गगन
हारा ह्रदय हारा हू मन

कैसे समझाऊं ये बुद्धि कौन सा जतन करे
जो कछु पाता धैर्य से उससे व्याकुल मन ये डरे
मैं मूढ़ नासमझ क्या क्या सोचता रहा
मेरी प्रयास कब हुई नीचता देखता रहा
हो चुकी थी देर जब पाप का ज्ञान हुआ
प्राश्चित का बोध हुआ तेरे पास आन हुआ

हुए है अपराध भारी कैसे तुमसे क्षमा मांगू
हाथ जोड़ खड़ा हो जाऊ साथ अश्रु के धार बहाहू

जो तू कछु बोल अपने हाथ तेरे पैर सवारु
मेरी गलती हो क्षमा तू कहे सिर धड़ से अलग कर जाऊ

तू कहे तो बन जाऊ जोगी तेरी स्मृति में होकर सचेत
सुनाऊं सबको बिरह गीत मांगू क्षमा मित्रों समेत

जो तू कर दे क्षमा..
मेरे लिए नया जीवन होगा
नये होंगे चांद और सितारे
नयी धरती नया आसमान होगा

गाऊ बस तेरे गीत दे तू वर हम दोनों निर्भय हो
मैं मनाऊं तेरे नाम का उत्सव और कहूं…

तेरी जय हो जय हो जय हो

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