प्रेम की कविता

हे प्राणप्रिये हे प्राणप्रिये
सुनले हृदय की पीर प्रिये

कितनी बतिया हैं कह डारी
कितनी कहनी शेष हैं
मेरे हिय की स्पंदन सुन
तू कितनी विशेष है
सिर्फ मैं तेरा होके रह जाऊं
ऐसा एक मंतर मार प्रिये

हे प्राणप्रिये हे प्राणप्रिये

तू तो रचना काशी जैसी
मैं बैठा उसमें पापी हू
तू तो ठहरी स्वर्ग सुंदरी
मैं मरघट का वासी हू
जो तन को नष्ट कर डारे
ऐसी एक अग्नि जला प्रिये

हे प्राणप्रिये हे प्राणप्रिये

तू करुणा की पुस्पकुंज हैं
मैं कीचड़ की उबासी हु
तू तो हैं, त्रि नेत्रों वाली
मैं काम रूप अभिलाषी हू
जो मन के वेग को स्थिर कर डारे
ऐसा एक तीर मार प्रिये

हे प्राणप्रिये हे प्राणप्रिये

तू तो हर्ष में बसने वाली
मैं दुख का कारक हु
तू शुभ की ग्रह चाल
मैं अशुभ का मारक हू
जो हर कर्मो से मुक्त कर डारे
ऐसा एक उपाय बता प्रिये

हे प्राणप्रिये हे प्राणप्रिये

तू प्रेम को रचने वाली
मैं बिरह का साथी हु
तू राग की उच्चतम स्वर
मैं राग बियोग का साथी हु
जो मुझे जीवित कर डारे
ऐसा एक राग छेड़ प्रिये

हे प्राणप्रिये हे प्राणप्रिये

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